:यह कहानी संत खेतारामजी महाराज की है। यह कहानी त्याग, तपस्या और भक्ति के स्वरूप की है। जिसे 8 साल के शोध के बाद 430 पन्नों की एक किताब में 81 अध्यायों में उतारा गया है। इसे लिखा है इतिहासकार जबरसिंह राजपुरोहित ने संत खेतारामजी महाराज जन्म से ही भक्ति में लीन हो गए उन्होंने आसोतरा में बने बह्माजी मंदिर की नींव रखी और म मंदिर निर्माण तक तपस्या में डूब गए। उन्होंने गांव गांव घूमकर सवा रुपए का अंशदान इकट्ठा करके मंदिर निर्माण शुरू किया। इतिहासकार जबरसिंह राजपुरोहित बताते हैं कि दिव्य संत खेतारामजी महाराज के अवतरण से लेकर बहालीन तक उनकी जीवनी को अवतरित किया गया है।
श्री खेतेश्वर गुरू ग्रन्थ प्रस्तावना स्वयं दिव्य संत के 87 वर्षीय भतीजे हड़मानसिंह सराणा ने नए आयाम भी दिए हैं। ग्रन्थ में दिव्य 70 वर्ष पूर्व सांवलरामजी रामावत राखी एवं खिंवजी बापू द्वारा हस्तलिखित पुस्तकें, अन्य स्रोतों व लेखक का 1975 से 1984 तक दिव्य संत के संपर्क में रहने के चलते शोध की सफलता सम्भव हुई। पुष्कर के बाद विश्व में ब्रह्माजी में का दूसरा मंदिर आसोतरा में बनाने वाले संत का पुश्तैनी गांव तो बालोतरा के पास सराणा था, लेकिन अकाल के चलते माता-पिता शेरसिंहजी व सिणगारी देवी बिजरोल रहते थे। इसी कारण संत का जन्म सांचौर के पास खड़ा बिजरोल गांव में 22 अप्रैल 1912 को हुआ था। बचपन में माता देवलोक सिधार गई। बाद में पिता शेरसिंहजी बच्चों को लेकर । वापस सराणा आ | थोड़े समय बाद ये भी भी देवलोक हो गए।
नन्हें खेतारामजी का मन भक्ति में लीन था। पास में ही सांईजी की बेरी नामक आश्रम में दरवेश पंथी सिद्ध संत मलंग सांईजी के संपर्क में आए। सांई मलंग शाहजी इनके ज्ञान गुरु बने और भाइयों से इनको सन्यास जीवन की स्वीकृति दिलवाई। सांसारिक जीवन का त्याग कर सांईजी के सानिध्य में अपने तपस्याकाल जीवन की शुरुआत की। ब्रह्माजी मंदिर बनाने का हठ, कइयों ने कहा- यह त्याग दो श्री खेतेश्वर इतिहास दिव्य संत खेतरामजी महाराज ब्रह्माजी मंदिर बनाने की मन में ठान ली। तब ज्ञान गुरु ने कहा कि एक व्यक्ति अपने जीवन में मंदिर का संकल्प पूरा नहीं कर सकता, इसके लिए तीन-तीन पीढ़िया देवलोक हो जाती है, क्योंकि माता सावित्री का ब्रह्मा को श्राप है, जो कोई उनका मंदिर बनाएगा, वो साधक जीवित नहीं रहेगा, इसलिए ऐसा विचार त्याग दो दिव्य संत अपनी बात पर अड़े रहे। तब ज्ञानगुरु सांईजी ने कहा कि यदि यह संकल्प पूरा करना है तो साधना के वक्त साधक की सुरक्षा स्वयं भैरव करें, मां ब्रह्माणी का उस पर आशीर्वाद हो।
इसके जसा कहा वैसा ही किया। की सिद्धि प्राप्त करनी जरूरी है। मंदिर बनाने ज्ञानगुरु के लिए भैरव और ब्रह्माणी संत को 22 मार्च 1941 को सोनाणा भेजा, जहां वे लंबे समय तक ठहराव कर भैरव सिद्धि प्राप्त की। इस दौरान गोडवाड़ क्षेत्र में छत्तीस जाति के सैकड़ों भक्त जुड़ते गए। दिव्य संत ने नाडोल आशापुरा मंदिर पर पुजारी नवलजी फोन्दर से पशुबली बंद करवाई। मित्र भेरपुरी के पुत्र रूपपुरी को संत दीक्षा प्रेरणा देकर महान जैन संत रूपमनि के रूप में पार्दुभाव किया। सोनाणा के खिंवजी बापू जैसे अनुभवी साथी को अपने साथ रखा और उनसे आत्मीय लगाव बनाए रखा।